Sunday 22 January 2012

"खून की श्याही"

"खून की श्याही"

वो भी
क्या जमाना था
इश्क का
चाय के प्यालों से
उठती धुंध में
तुम्हारी तस्वीर
मुकम्मल हो जाती थी
लिखता था
हर हर्फ़ इतना
नजाकत से भरा
के गुलाबों का गुमा
होता था
सफाह पे
उसकी खुशबू से
कलम मदहोश
हो उठती थी
और तेरे
श्याह चश्म से
फिर श्याही
बटोर लेती
मचलती और
फिर लिखती
रुखसार को
चाँद कभी तो
कँवल कभी ग़ज़ल
तुम आज भी
ऐसे ही हो
पर वक़्त
बदल गया
अल्फाज
बदल गए
बदलते वक़्त
के चलते
अंदाज बदल गए
हालात बदल गए
जमाने को देख
हर ओर धोखा
और फरेब
दामन में
खार समेटे
गुलाब से दिखते
तमाशाई लोग
अब कलम
मजलूमों के
खून की श्याही
बना लिखती है
नजाकत सख्ती
में बदल गयी है
दर्द है एक
मौन सी चीख है
फिर भी
कसमकस में हूँ
के सफाह में तो
अंगारे लिख दिए
लेकिन जलता
कोई नहीं
सिवाए इस दिल के

संदीप पटेल "दीप"

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