Thursday 26 January 2012

मैं सिस्टम हूँ

दोस्तों थोडा अटपटा सा लग सकता है किन्तु ये एक प्रयाश है
समझ में आने पर अवगत कराएँ


दिन भर आफताब से
बिखरी रौशनी
... कीमिया ताप
रात आके पी जाती है
मेहनत
पर पानी ठंडा है
कैसी ट्रेजडी है
.
.
.
किसी तस्वीर के
टुकड़े टुकड़े
जोड़े कितनी जोड़ी
नयी तस्वीर
बनी
नहीं नहीं
मुझे इस बार
आतिशबाजी पे
दो लड्डू अतिरिक्त देना
दीवारों के अन्दर
तक गूँज उठेगी
आवाज जब
ब्लास्ट की
.
.
.
मुझे अच्छा लगता है
मौन रहना
चीखों से अनभिज्ञ रहना
मुझे फर्क नहीं पड़ता
बाहर क्या परिवर्तन हो रहा है
मैं अपने में खुश हूँ
मैं सिस्टम हूँ
हाँ एक क्लोस सिस्टम
.
.
.
अहा कितना सुन्दर है
रत्न है
कब बना ये
किसने बनाया
ये तो फजूल है
ऐसे पूछना
रत्न निकलते हैं
कोख से
धरती माँ के
और फिर चमकते हैं
स्टार
.
.
.

आरम्भ हुआ
गूँज कहीं कहीं
किसी के कान पे
किसी के दिल में
किसी के पैर में
पूरे जिस्म में
खुजली सी
क्यूँ होने लगी
क्या जख्म
मिट रहे हैं
या नए जिस्म की
होगी सर्जरी
.
.
.
ऐसा लगता है
कोई स्वप्न
देखा गया हो
जिधर रहा हो
अँधेरा ही अँधेरा
तो फिर दिखा क्या
सपने में
वही तो
ड्रीम था

संदीप पटेल "दीप"

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