Monday 14 July 2014

ग़ज़ल

ग़ज़ल है इश्क की रौनक सनम की रानाई
बदन की शोख अदाओं से भरी अंगडाई

ग़ज़ल नफस में बसी कोई तरन्नुम प्यारी
 शबे विसाल में ज्यों बजती हुई शहनाई

गया जो डूब उसे थाह न मिली अब तक
ग़ज़ल कभी है समंदर तो कभी है खाई

गुलों का रंग ओ नजाकत गुहर है उसका तो
ग़ज़ल बहार में जैसे महकती अमराई

ग़ज़ल गुबार है दिल का तो कभी सादापन 
ग़ज़ल भटकते ख्यालों की कोई अँगनाई



संदीप कुमार पटेल "दीप"


Thursday 29 March 2012

भंवर धूल भरके अरे ग्रीष्म आया

भंवर धूल भरके अरे ग्रीष्म आया

लताएँ पतायें क्यूँ पीली पड़ी है
वो अलसाई सूखी सी ढीली पड़ी है
बहुत उड़ रही है ये धूली धरा से
ये रंगत गगन की भी नीली पड़ी है

है मुरझाये फूल और फूलों की डाली
ना जाने कहाँ है वो गालों की लाली
हैं सूखे अधर अब औ पपड़ी पड़ी है
कभी तो वही थे शबनम की प्याली

कहीं उड़ रहे हैं कुछ आवारा बादल
है थोड़ी सी राहत घटा की ये चादर
है पत्तों के झड़ने के दिन लगता आए
वो बरगद छैयां किसे ना सुहाए

है सुस्ती भरे दिन ना मस्ती की रातें
बीमारी है नित नई मरोड़ें जो आंतें
अमीरों को शरबत गरीबों को पानी
ना खाना सुहाये ना खाने की बातें

है अलसाई नदिया और ऊँघे हैं नाले
वो पोखर भी सूखे हैं झरनों पे ताले
लगी आग जंगल में विचलित पशु भी
कहाँ जायेंगे हम है किसके हवाले

गरीबों का लुटता है भोजन वो बासी
खटाई पड़ी है और छाई उदासी
मगर तपते तपते हुई है मजूरी
भले आई उसको भी दिनभर उबासी

अमीरों का चलता अलग सबसे फंडा
निकाले ज़रा कोई फ्रीज़र से ठंडा  
अरे कोई AC जरा ON कर दो
है बैठा वो कुर्सी पे करता है धंधा

भरे बाण अग्नि के सूरज है आया
है घायल बसंत अब करे कौन छाया
भंवर धूल भरके अरे ग्रीष्म आया
चलाता है आंधी वो तूफ़ान लाया

संदीप पटेल "दीप"

क्यूँ बदनाम मेरा वतन हो रहा है

क्यूँ बदनाम मेरा वतन हो रहा है
वो धरती से जैसे गगन हो रहा है

चढ़े फूल देवों पे इतरा रहे हैं
औ शर्मिंदा सारा चमन हो रहा है

कभी खार बनके चुभा था जो पग में
मुखौटा लगा वो सुमन हो रहा है

बली चढ़ रहे हैं युवाओं के सपने
ना जाने ये कैसा हवन हो रहा है

कहीं बेबा चीखें कहीं माएं रोती
धमाकों भरा अब अमन हो रहा है

किसी के लिए तो है चन्दन की लकड़ी
कहीं चिथड़ा ही अब कफ़न हो रहा है

जो पढता है केवल कमाई के जरिये
वही आजकल का रमन हो रहा है

कहीं बिक ना जाए हमारा जहाँ ये
तो
बेचैन  व्याकुल ये मन हो रहा है

बुझा "दीप" सारे वो इतरा के चलता
वो गद्दार शीतल पवन हो रहा है

संदीप पटेल "दीप"

जमीं से तुम्हारी अमन बेच देंगे

निजामी ये रक्षक वतन बेच देंगे
धरा लुट गयी तो गगन बेच देंगे

सुहाता नहीं इनको जिन्दा परिंदा
ये नदियाँ पहाड़ औ चमन बेच देंगे

सजावट बनावट इन्हें भा रही है
ये खिल के बिखरते सुमन बेच देंगे

अगर आँख खोलोगे अपनी नहीं तो
ये भाभा कलाम औ रमन बेच देंगे

सजा लो अभी तुम नई कोई वेदी
ये बलिदान कर कर हवन बेच देंगे

हटा लो निगाहें अभी झूठ से तुम
ये वरना शहीदों के तन बेच देंगे

ये गुमराह सोहरत के अंधे हैं लोगो
सम्हाल जाओ वरना ये मन बेच देंगे

ये दहशत ये वहशत के अंधे पुजारी
जमीं से तुम्हारी अमन बेच देंगे


ये फिरते हैं फानूश बन के जहां में
बुझा "दीप" तुमको पवन बेच देंगे


संदीप पटेल "दीप"

Tuesday 27 March 2012

ग़ज़ल

===== ग़ज़ल ======


रोज छुपके जो वो मिलने लगे हैं
नये से ख्वाब कई पलने लगे हैं

बिना परदे के देखा महजबीं को
दिल के अरमान मचलने लगे हैं

जिधर जाना नहीं था भूल के भी
उन्ही राहों पे अब चलने लगे हैं

बिना उनके रहा बंजर मेरा दिल
गुल गुलिस्ताँ में लो खिलने लगे हैं

रहा सूरज मगर हो गयी मुहब्बत
ख्वाहिश-ए-चाँद में ढलने लगे हैं

मैं खुदको छोड़ उनका हो गया हूँ
खुदी को हम बहुत खलने लगे हैं

बहुत बदले हैं उनकी चाहतों में
आईने को भी अब छलने लगे हैं

मोहब्बत है बुरी जो कहते थे
देख कर हाथ वो मलने लगे हैं

जुस्तजू उसकी आरजू उसी की
सारी शब् "दीप" सा जलने लगे हैं

संदीप पटेल "दीप"

Monday 30 January 2012

आराधन रस का लिए ये ऋतुराज बसंत

आराधन रस का लिए ये ऋतुराज बसंत

माघ शुक्ल का आगमन अति शीत का अंत 
नव दुर्गा के मनन से आरम्भ हुआ बसंत
जन्मोत्सव वागीश्वरी पंचम तिथि बसंत
आराधन रस का लिए ये ऋतुराज बसंत

दक्षिण-उत्तर पवन भी चलती शीतल मंद

दिनकर उत्तर में चले प्रखर भये हैं चंद
नवल धरा नव गगन पर नव रव रचते छंद
आराधन रस का लिए ये ऋतुराज बसंत

मनुज ह्रदय में प्रीत शर चला रहे अनंग

तरुण धरा हरितावरण लिए हुए है संग
स्फुटित हरित लता पता पे गा रहे बिहंग
आराधन रस का लिए ये ऋतुराज बसंत

पंकज में पग को रखे मुख मुस्काये मंद

कर वीणा ले शारदे स्वर लगते मकरंद
कोयल कूके डाल पर उर में छाये आनंद
आराधन रस का लिए ये ऋतुराज बसंत

योवन धरा का देख के देवलोक भी दंग

गलियों में उड़ रहा रंग होली की हुडदंग
सुरभि सुमनावली सी नूतन किसलय संग
आराधन रस का लिए ये ऋतुराज बसंत

सरसों से वसुधा सजी पीली चादर अंग

अमराई अंगड़ा रही मादक उडती गंध
चटकी कलियाँ फूल से बिखरे सारे रंग
आराधन रस का लिए ये ऋतुराज बसंत

अंग अंग जीवित हुआ आया नवल बसंत

सजनी साजन प्रेम-मय करते सजल बसंत
प्रेम भरा श्रंगार रस उर उर धवल बसंत
आराधन रस का लिए ये ऋतुराज बसंत

हरयाली चहुँ ओर है सोभित दिशा दिगंत

प्रेम ये राधा कृष्ण का धरती गगन अनंत
कंत निहारें छटा को और करे साधना संत
आराधन रस का लिए ये ऋतुराज बसंत

संदीप पटेल "दीप"

Sunday 29 January 2012

जहाँ शाख शाख उल्लू बैठे अंजाम-ए-गुलिस्ताँ क्या होगा ??

यहाँ चोर चोर ज़ाबित बैठे निजाम-ए-हिन्दुस्तां क्या होगा ??
जहाँ शाख शाख उल्लू बैठे अंजाम-ए-गुलिस्ताँ क्या होगा ??

जहाँ कदम कदम पे बम फूटे मंदिर मस्जिद का दम टूटे

जब रात नींद ना आती है तब ख्वाब-ए-शबिस्ताँ क्या होगा ??

यहाँ लूट मची है पैसों की, चलती हैं मिले विदेशों की

देशी का मिटता नाम यहाँ इस जैसा करिश्मा क्या होगा ??

बाबू जी टी वी देख रहे , संग में ले बीबी देख रहे

अब बच्चे आज के क्या जाने आलम-ए-परिस्ताँ क्या होगा ??

ना जाने कब वो जागेगा सोता सा पार्थ अब भारत का

है चिंता जिसे नौकरी की उसे रब्त-ए-खलिस्ताँ क्या होगा ??

यहाँ "दीप" जल रहे बुझे बुझे, फानूश हवा के यार हुए

माली ही चमन उजाड़ रहे तो हाल-ए-गुलिस्ताँ क्या होगा ??

संदीप पटेल "दीप"