Tuesday, 27 March 2012

ग़ज़ल

===== ग़ज़ल ======


रोज छुपके जो वो मिलने लगे हैं
नये से ख्वाब कई पलने लगे हैं

बिना परदे के देखा महजबीं को
दिल के अरमान मचलने लगे हैं

जिधर जाना नहीं था भूल के भी
उन्ही राहों पे अब चलने लगे हैं

बिना उनके रहा बंजर मेरा दिल
गुल गुलिस्ताँ में लो खिलने लगे हैं

रहा सूरज मगर हो गयी मुहब्बत
ख्वाहिश-ए-चाँद में ढलने लगे हैं

मैं खुदको छोड़ उनका हो गया हूँ
खुदी को हम बहुत खलने लगे हैं

बहुत बदले हैं उनकी चाहतों में
आईने को भी अब छलने लगे हैं

मोहब्बत है बुरी जो कहते थे
देख कर हाथ वो मलने लगे हैं

जुस्तजू उसकी आरजू उसी की
सारी शब् "दीप" सा जलने लगे हैं

संदीप पटेल "दीप"

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