Thursday, 29 March 2012

भंवर धूल भरके अरे ग्रीष्म आया

भंवर धूल भरके अरे ग्रीष्म आया

लताएँ पतायें क्यूँ पीली पड़ी है
वो अलसाई सूखी सी ढीली पड़ी है
बहुत उड़ रही है ये धूली धरा से
ये रंगत गगन की भी नीली पड़ी है

है मुरझाये फूल और फूलों की डाली
ना जाने कहाँ है वो गालों की लाली
हैं सूखे अधर अब औ पपड़ी पड़ी है
कभी तो वही थे शबनम की प्याली

कहीं उड़ रहे हैं कुछ आवारा बादल
है थोड़ी सी राहत घटा की ये चादर
है पत्तों के झड़ने के दिन लगता आए
वो बरगद छैयां किसे ना सुहाए

है सुस्ती भरे दिन ना मस्ती की रातें
बीमारी है नित नई मरोड़ें जो आंतें
अमीरों को शरबत गरीबों को पानी
ना खाना सुहाये ना खाने की बातें

है अलसाई नदिया और ऊँघे हैं नाले
वो पोखर भी सूखे हैं झरनों पे ताले
लगी आग जंगल में विचलित पशु भी
कहाँ जायेंगे हम है किसके हवाले

गरीबों का लुटता है भोजन वो बासी
खटाई पड़ी है और छाई उदासी
मगर तपते तपते हुई है मजूरी
भले आई उसको भी दिनभर उबासी

अमीरों का चलता अलग सबसे फंडा
निकाले ज़रा कोई फ्रीज़र से ठंडा  
अरे कोई AC जरा ON कर दो
है बैठा वो कुर्सी पे करता है धंधा

भरे बाण अग्नि के सूरज है आया
है घायल बसंत अब करे कौन छाया
भंवर धूल भरके अरे ग्रीष्म आया
चलाता है आंधी वो तूफ़ान लाया

संदीप पटेल "दीप"

क्यूँ बदनाम मेरा वतन हो रहा है

क्यूँ बदनाम मेरा वतन हो रहा है
वो धरती से जैसे गगन हो रहा है

चढ़े फूल देवों पे इतरा रहे हैं
औ शर्मिंदा सारा चमन हो रहा है

कभी खार बनके चुभा था जो पग में
मुखौटा लगा वो सुमन हो रहा है

बली चढ़ रहे हैं युवाओं के सपने
ना जाने ये कैसा हवन हो रहा है

कहीं बेबा चीखें कहीं माएं रोती
धमाकों भरा अब अमन हो रहा है

किसी के लिए तो है चन्दन की लकड़ी
कहीं चिथड़ा ही अब कफ़न हो रहा है

जो पढता है केवल कमाई के जरिये
वही आजकल का रमन हो रहा है

कहीं बिक ना जाए हमारा जहाँ ये
तो
बेचैन  व्याकुल ये मन हो रहा है

बुझा "दीप" सारे वो इतरा के चलता
वो गद्दार शीतल पवन हो रहा है

संदीप पटेल "दीप"

जमीं से तुम्हारी अमन बेच देंगे

निजामी ये रक्षक वतन बेच देंगे
धरा लुट गयी तो गगन बेच देंगे

सुहाता नहीं इनको जिन्दा परिंदा
ये नदियाँ पहाड़ औ चमन बेच देंगे

सजावट बनावट इन्हें भा रही है
ये खिल के बिखरते सुमन बेच देंगे

अगर आँख खोलोगे अपनी नहीं तो
ये भाभा कलाम औ रमन बेच देंगे

सजा लो अभी तुम नई कोई वेदी
ये बलिदान कर कर हवन बेच देंगे

हटा लो निगाहें अभी झूठ से तुम
ये वरना शहीदों के तन बेच देंगे

ये गुमराह सोहरत के अंधे हैं लोगो
सम्हाल जाओ वरना ये मन बेच देंगे

ये दहशत ये वहशत के अंधे पुजारी
जमीं से तुम्हारी अमन बेच देंगे


ये फिरते हैं फानूश बन के जहां में
बुझा "दीप" तुमको पवन बेच देंगे


संदीप पटेल "दीप"

Tuesday, 27 March 2012

ग़ज़ल

===== ग़ज़ल ======


रोज छुपके जो वो मिलने लगे हैं
नये से ख्वाब कई पलने लगे हैं

बिना परदे के देखा महजबीं को
दिल के अरमान मचलने लगे हैं

जिधर जाना नहीं था भूल के भी
उन्ही राहों पे अब चलने लगे हैं

बिना उनके रहा बंजर मेरा दिल
गुल गुलिस्ताँ में लो खिलने लगे हैं

रहा सूरज मगर हो गयी मुहब्बत
ख्वाहिश-ए-चाँद में ढलने लगे हैं

मैं खुदको छोड़ उनका हो गया हूँ
खुदी को हम बहुत खलने लगे हैं

बहुत बदले हैं उनकी चाहतों में
आईने को भी अब छलने लगे हैं

मोहब्बत है बुरी जो कहते थे
देख कर हाथ वो मलने लगे हैं

जुस्तजू उसकी आरजू उसी की
सारी शब् "दीप" सा जलने लगे हैं

संदीप पटेल "दीप"

Monday, 30 January 2012

आराधन रस का लिए ये ऋतुराज बसंत

आराधन रस का लिए ये ऋतुराज बसंत

माघ शुक्ल का आगमन अति शीत का अंत 
नव दुर्गा के मनन से आरम्भ हुआ बसंत
जन्मोत्सव वागीश्वरी पंचम तिथि बसंत
आराधन रस का लिए ये ऋतुराज बसंत

दक्षिण-उत्तर पवन भी चलती शीतल मंद

दिनकर उत्तर में चले प्रखर भये हैं चंद
नवल धरा नव गगन पर नव रव रचते छंद
आराधन रस का लिए ये ऋतुराज बसंत

मनुज ह्रदय में प्रीत शर चला रहे अनंग

तरुण धरा हरितावरण लिए हुए है संग
स्फुटित हरित लता पता पे गा रहे बिहंग
आराधन रस का लिए ये ऋतुराज बसंत

पंकज में पग को रखे मुख मुस्काये मंद

कर वीणा ले शारदे स्वर लगते मकरंद
कोयल कूके डाल पर उर में छाये आनंद
आराधन रस का लिए ये ऋतुराज बसंत

योवन धरा का देख के देवलोक भी दंग

गलियों में उड़ रहा रंग होली की हुडदंग
सुरभि सुमनावली सी नूतन किसलय संग
आराधन रस का लिए ये ऋतुराज बसंत

सरसों से वसुधा सजी पीली चादर अंग

अमराई अंगड़ा रही मादक उडती गंध
चटकी कलियाँ फूल से बिखरे सारे रंग
आराधन रस का लिए ये ऋतुराज बसंत

अंग अंग जीवित हुआ आया नवल बसंत

सजनी साजन प्रेम-मय करते सजल बसंत
प्रेम भरा श्रंगार रस उर उर धवल बसंत
आराधन रस का लिए ये ऋतुराज बसंत

हरयाली चहुँ ओर है सोभित दिशा दिगंत

प्रेम ये राधा कृष्ण का धरती गगन अनंत
कंत निहारें छटा को और करे साधना संत
आराधन रस का लिए ये ऋतुराज बसंत

संदीप पटेल "दीप"

Sunday, 29 January 2012

जहाँ शाख शाख उल्लू बैठे अंजाम-ए-गुलिस्ताँ क्या होगा ??

यहाँ चोर चोर ज़ाबित बैठे निजाम-ए-हिन्दुस्तां क्या होगा ??
जहाँ शाख शाख उल्लू बैठे अंजाम-ए-गुलिस्ताँ क्या होगा ??

जहाँ कदम कदम पे बम फूटे मंदिर मस्जिद का दम टूटे

जब रात नींद ना आती है तब ख्वाब-ए-शबिस्ताँ क्या होगा ??

यहाँ लूट मची है पैसों की, चलती हैं मिले विदेशों की

देशी का मिटता नाम यहाँ इस जैसा करिश्मा क्या होगा ??

बाबू जी टी वी देख रहे , संग में ले बीबी देख रहे

अब बच्चे आज के क्या जाने आलम-ए-परिस्ताँ क्या होगा ??

ना जाने कब वो जागेगा सोता सा पार्थ अब भारत का

है चिंता जिसे नौकरी की उसे रब्त-ए-खलिस्ताँ क्या होगा ??

यहाँ "दीप" जल रहे बुझे बुझे, फानूश हवा के यार हुए

माली ही चमन उजाड़ रहे तो हाल-ए-गुलिस्ताँ क्या होगा ??

संदीप पटेल "दीप"

Friday, 27 January 2012

"गजल"

"गजल"

बेबफा प्यार किया करते हैं
गुलों को खार किया करते हैं

गुलों से वार किया करते हैं
दिल-ए-बेजार किया करते हैं

मजा लेना हो जब जवानी का
तो वो इकरार किया करते हैं

रजा भी खुलके नहीं देते हैं 
ना ही इन्कार किया करते हैं

चादरें इश्क के धागों से बनी
वो तार तार किया करते हैं

जिसे आता है खेलना दिल से
वो ही इज़हार किया करते हैं

जिसे मिला नहीं है धोखा यहाँ
वही ऐतबार किया करते हैं

जुबाँ बनी नहीं पत्थर के लिए
गिला बेकार किया करते हैं

मैंने समझाया बहुत नादाँ को
यारी भी यार किया करते हैं

कौन समझाए "दीप" चश्म-ए-बयाँ
बेजुबाँ प्यार किया करते हैं

संदीप पटेल "दीप:"

कौन पढ़ेगा सागर तीरे कौन बनेगा आज कलाम

जाने कहाँ गया वो आलम होती थी जब दुआ सलाम
हाय बाय में अटके हैं अब भूल गए सब सीता राम

मुन्नी शीला और चमेली नाच रहे सब डिस्को में
दोहों और छंदों का होता अब भारत में काम तमाम
...

मंदिर की घंटी के भी स्वर अब सुनने नहीं मिलते हैं
सून सपाटे सन्नाटों से रास रंग में सिमटी शाम

मोम डेड ने साफ़ कर दिए माँ बाबू के आज निशान
गाँव से बाहर ड्यूड आ गए करने को ऑफिस के काम

प्रेम बन गया है अब तो लव निकल पड़ा जो सडको पे
उद्यानों की झुरमुट में ही नवजोड़ों के चारों धाम

क्यूँ होगा आराधन प्रभु का वो आते हैं किसके काम
जेक जुगाड़ों से हो जाते सबके सारे बिगड़े काम

जाने कहाँ गया वो मंजर घर घर मीठा बटता था
आज ख़ुशी हो या गम आये हर अवसर पर बनते जाम
देशी का विद्रोह है होता मिलें मुगलिशी आ गयी हैं
ये भी काश समझ में आता क्यूँ खादी का बढ़ता दाम


रुपयों की पूजा है होती रुपया ही है आज ईमान
रुपयों की ही सोच रहा है हर आदम अब सुबह-ओ-शाम

यू के चलन ने क्या कर डाला आप श्राप सा लगता है
छोटे भी आदर से लेते आज बड़ों के खुलकर नाम

छोटे काम बुरे से लगते आ पहुँचा है आज मकाम
कौन पढ़ेगा सागर तीरे कौन बनेगा आज कलाम
 
संदीप पटेल "दीप"  

Thursday, 26 January 2012

मैं सिस्टम हूँ

दोस्तों थोडा अटपटा सा लग सकता है किन्तु ये एक प्रयाश है
समझ में आने पर अवगत कराएँ


दिन भर आफताब से
बिखरी रौशनी
... कीमिया ताप
रात आके पी जाती है
मेहनत
पर पानी ठंडा है
कैसी ट्रेजडी है
.
.
.
किसी तस्वीर के
टुकड़े टुकड़े
जोड़े कितनी जोड़ी
नयी तस्वीर
बनी
नहीं नहीं
मुझे इस बार
आतिशबाजी पे
दो लड्डू अतिरिक्त देना
दीवारों के अन्दर
तक गूँज उठेगी
आवाज जब
ब्लास्ट की
.
.
.
मुझे अच्छा लगता है
मौन रहना
चीखों से अनभिज्ञ रहना
मुझे फर्क नहीं पड़ता
बाहर क्या परिवर्तन हो रहा है
मैं अपने में खुश हूँ
मैं सिस्टम हूँ
हाँ एक क्लोस सिस्टम
.
.
.
अहा कितना सुन्दर है
रत्न है
कब बना ये
किसने बनाया
ये तो फजूल है
ऐसे पूछना
रत्न निकलते हैं
कोख से
धरती माँ के
और फिर चमकते हैं
स्टार
.
.
.

आरम्भ हुआ
गूँज कहीं कहीं
किसी के कान पे
किसी के दिल में
किसी के पैर में
पूरे जिस्म में
खुजली सी
क्यूँ होने लगी
क्या जख्म
मिट रहे हैं
या नए जिस्म की
होगी सर्जरी
.
.
.
ऐसा लगता है
कोई स्वप्न
देखा गया हो
जिधर रहा हो
अँधेरा ही अँधेरा
तो फिर दिखा क्या
सपने में
वही तो
ड्रीम था

संदीप पटेल "दीप"

गणतंत्र दिवस के इस पावन अवसर पर आप सभी मित्रों को हार्दिक हार्दिक सुभकामनाएँ



अब आँखों में पानी की जगह हमको अंगारे भरने हैं
इन वहशत की अंधी गलियों में कुछ उजियारे भरने हैं

आतंकवाद की लपटों से जो उजड़ रहा है गुलशन ये
उजड़े उजड़े इस गुलशन में नए गुल भी न्यारे भरने हैं

कुंठा ले के क्यूँ जीना है क्यूँ घूँट जहर का पीना है
जो सूख चुके तालाब ह्रदय के उनके किनारे भरने है

अब शीश चढ़ा भारत माँ को अपनी कुर्बानी दे दे के
इस रिक्त हो चुके आसमान में हमको तारे भरने हैं

शोषण की इस गर्मी से जो भाव दिलों के सूख गए
अब सींच सींच के लहू जिस्म का भाव वो सारे भरने हैं

अब आँखों में पानी की जगह हमको अंगारे भरने हैं
इन वहशत की अंधी गलियों में कुछ उजियारे भरने हैं

संदीप पटेल "दीप"

Wednesday, 25 January 2012

हम आज़ाद हैं

"हम आज़ाद हैं "

आवारा बादल
मनचलों के जैसे
उड़ा जा रहा है
अचानक एक अवरोध
एक विशाल पर्वत
उसका मार्ग रोकता
जिसके विरोध में
वो गरजता है
बिजली के तीखे बाण
चलाता है
उसे चूर चूर कर देने के लिए
और उसे बहा डालने के
निम्मित उसमे
बारिश करने लग जाता है
फिर थकता है
और पूरी शक्ति के साथ पुनः
आता है
वो जानता है
पर्वत अडिग है
फिर भी हार नहीं मानता है
हवा के साथ मिलकर
आंधी तूफ़ान भी साथ में ले आता है
जबकि वो जानता है
पर्वत अडिग है
फिर नदियों को भी
उफान देता है
बाढ़ आंधी तूफ़ान मूशलाधार वर्षा
के साथ फिर आक्रमण करता है
और पर्वत के किनारों को काट
अपने अस्तित्व का एहसास कराता है
वो हार नहीं मानता है
आखिर बंदिशें
किसे अच्छी लगती हैं
.
.
.
.
.
लेकिन हमने
बंदिशों को अपना लिया है
हम गुलामी परस्त हो चुके लोग
किसी का विरोध नहीं करते हैं
क्यूंकि हम आज़ाद हैं
केवल सरकारी पन्नो के आधार पर
हमें आदत है सब कुछ
मौन चीख के साथ
सहन करने की
क्यूंकि हम इंसान है
बुद्धिजीवी हैं
हम दोषों का अवलोकन तो कर लेते हैं
लेकिन उसे जल्द अपना भी लेते हैं
क्यूंकि हम इंसान है
हाँ आज़ाद इंसान
बिलकुल मच्छरों की तरह
भिनभिनाते संगीत सुनाने
विचार रखने के लिए आज़ाद
किन्तु अपने आस्तित्व को
दिखाने पर मिलती है
सजा  सजा-ए-मौत
हम आज़ाद है परिंदों की तरह
जिसे पकड़ने के लिए
बहेलिया जाल बिछाए बैठा है
हम आज़ाद है
जल में उस मछली की तरह
जो आवश्यकता पड़ने पर
भोजन बन जाती है
हम आज़ाद हैं
उन्ही आवारा बादलों की तरह
फर्क इतना है
के वो विरोध करना जानते हैं
और हम बंदिशों में जीना
हम आज़ाद हैं
किन्तु हमें आज़ाद जीने की आज़ादी नहीं है

संदीप पटेल "दीप"

Tuesday, 24 January 2012

क्यूँ खुश हो करूँ राष्ट्र गुणगान

दोस्तों गणतंत्र दिवस आने वाला है सोचा दिल का गुबार तो निकाल ही लूं
अन्यथा कलम ये ना कह दे की तुम्हारा लिखना व्यर्थ है
और दिल ये ना कह दे की ऐसे जी रहे हो तो जीना व्यर्थ है

देश के हालातों पर चलिए डालें एक नज़र
इस गणतंत्र  का आखिर सबपे गहरा है असर

इस गणतंत्र में सोच रहा
क्यूँ खुश हो करूँ राष्ट्र गुणगान
आखिर ये गणतंत्र मना
क्या होगा भारत देश महान ??

क्या गणतंत्र ये दिलवाएगा
भूखी मुनिया को रोटी आज
क्या गणतंत्र ये बचा सका
भारत माता की लुटती लाज

क्या गणतंत्र ये दिलवाएगा
आतंकवादी को फांसी आज
या मानव अधिकार आयोग को
फिर आ जायेगी खांसी आज

क्या गणतंत्र ये दिलवाएगा
बूढ़े मास्टर को पेंसन आज
या घूस खोर उस बाबू की
फिर बढ़ जायेगी टेंसन आज

क्या गणतंत्र ये बतलायेगा
है भ्रष्ट कौन इस तंत्र में आज
या फिर कोई नियम बनेगा
अतिआवश्यक जनतंत्र में आज

क्या गणतंत्र से बुझते हुए
कुछ घर के चूल्हे जलते हैं
या लोकतंत्र की बाहों में
केवल विषधर ही पलते हैं

क्या ये गणतंत्र बचा लेगा
बम फटने से निकली हुई जान
या बम फटने की घटना से
बढती है मेरे देश की शान

क्या गणतंत्र ये ब्याहेगा
बेटी गरीब की बिन दहेज़
या गठरी खाली हो जायेगी
जीवन भर से रखी सहेज

क्या गणतंत्र से रुकता है
आतंकवाद और नक्शलवाद
या गणतंत्र आरक्षण से
फैलाता है खुद जातिवाद

क्या गणतंत्र ये रोकेगा अब
भ्रष्टाचार और अत्याचार
या गणतंत्र ही करा रहा है
देश में सारे हाहाकार

इस गणतंत्र के रक्षक ही
घोटालों में उलझे रहते
और खादी पहने ये झूठे
चेहरों से सुलझे रहते

इस गणतंत्र से नहीं बची
भारत माता की लुटती लाज
वो चीख चीख के रोती है
क्यूँ ध्वज आरोहण होता आज

संदीप पटेल "दीप "

Sunday, 22 January 2012

"खून की श्याही"

"खून की श्याही"

वो भी
क्या जमाना था
इश्क का
चाय के प्यालों से
उठती धुंध में
तुम्हारी तस्वीर
मुकम्मल हो जाती थी
लिखता था
हर हर्फ़ इतना
नजाकत से भरा
के गुलाबों का गुमा
होता था
सफाह पे
उसकी खुशबू से
कलम मदहोश
हो उठती थी
और तेरे
श्याह चश्म से
फिर श्याही
बटोर लेती
मचलती और
फिर लिखती
रुखसार को
चाँद कभी तो
कँवल कभी ग़ज़ल
तुम आज भी
ऐसे ही हो
पर वक़्त
बदल गया
अल्फाज
बदल गए
बदलते वक़्त
के चलते
अंदाज बदल गए
हालात बदल गए
जमाने को देख
हर ओर धोखा
और फरेब
दामन में
खार समेटे
गुलाब से दिखते
तमाशाई लोग
अब कलम
मजलूमों के
खून की श्याही
बना लिखती है
नजाकत सख्ती
में बदल गयी है
दर्द है एक
मौन सी चीख है
फिर भी
कसमकस में हूँ
के सफाह में तो
अंगारे लिख दिए
लेकिन जलता
कोई नहीं
सिवाए इस दिल के

संदीप पटेल "दीप"

Saturday, 21 January 2012

दिलों में आज कोई शम्मा जलाओ तो जरा
लहू से फिर लहू का रंग मिलाओ तो जरा

जलेंगे आज भी दीपक लगेगी आग पानी में
दीयों को आज दीपक राग सुनाओ तो जरा

ज्ञानी शब्द भेदी का एक चौहान कलयुग में
अरे तुम देख कर एक तीर चलाओ तो जरा

मेहर-ओ-माह भी पाना कोई मुश्किल नहीं है
चश्म को आसमां के सपने दिखाओ तो जरा

अरे माँ बाप का सजदा कर लो अगर घर पे
कौन है मंदिर मस्जिद में ये बताओ तो जरा

धोना है पाप ही अगर तो गंगा क्यूँ जाना
तौबा का अश्क एक दिल से गिराओ तो जरा

ये तुम भी जानते हो मुल्क मिरा किसने है लूटा
मार के लात तो फिर उनको भगाओ तो जरा

तुम्हारे हाँथ की लकीर पे जो भी लिखा होगा
मिलेगा काम कर के इनको मिटाओ तो जरा

अरे क्यूँ सर्द हो गया तुम्हारे इश्क का जुनूं
"पटेल" फिर आग चाहतों की लगाओ तो जरा

संदीप पटेल

मित्रों समयाभाव की वजह से यदि कुछ त्रुटी हो तो अवश्य बता के अपनी प्रतिक्रिया दें

Thursday, 19 January 2012

जुल्फों की हसीं कैद से दी जबसे रिहाई

जुल्फों की हसीं कैद से दी जबसे रिहाई
यादों में गुजरी रात हमें नींद ना आई

तुम जो गए हयात से खुद को निकाल के
वीरानियों से हमने भी की दीदा-बराई

हाँथों की इन लकीरों से तुमको नहीं पाया
हर शब्-ओ-सुबह थी मेरी किस्मत से लड़ाई

फिर तिश्नगी कुछ ऐसी बढ़ी तेरी दीद की
तुम देने लगे मुझको तो हर शै पे दिखाई

कल देखा एक पल तुझे तो चैन आ गया
इतनी ख़ुशी मिली मुझे बस मौत ना आई

थे कुर्बतों में जब तलक वो हाथ थाम के
सोचा नहीं था मैंने खुदा देगा जुदाई

क्यूँ करते हो "पटेल" बयां बेबफाई को
बस बात यही सुन के किये चश्म-नुमाई
.........SPS ..............

Tuesday, 17 January 2012

"नारी"

"नारी"

जीवन की परिभाषा नारी
देवी नारी
माँ भी नारी
... कोमल चित और चितवन नारी
सुन्दर और सुशील भी नारी
पत्नी नारी
साली नारी
जीवन का आधार है नारी
जीवन का व्यवहार है नारी
जीवन के संस्कार है नारी
फिर क्यूँ फिरती मारी मारी
हाय हाय नारी
अबला नाम से परिचित नारी
मंद बुद्धि से परिणित नारी
क्यूँ फिरती अपमानित नारी
कुटिल सोच अनुमानित नारी
हीन भाव से ग्रसित है नारी
जन व्यवहार से त्रसित है नारी

क्यूँ होता है छल नारी संग
क्या इनकी कोई अपनी पहचान नहीं हो सकती
क्या वो बलवान नहीं हो सकती
क्या देश का उत्थान नहीं हो सकती
क्या उससे राह जीवन की आसान नहीं हो सकती

क्या घुट घुट के मरना ही नारी का जीवन है
तो क्यूँ करते हो झूठे संस्कार
क्यूँ करते हो माँ का सम्मान
क्यूँ करते हो बहनों से प्यार
उन्हें भी अबला ही बना के रखो

जब तुम्हारी आस्तित्व ही नारी से है तो क्यूँ ना उसको भी साथ में खड़ा किया जाए
उसे भी एक मौका दिया जाए
हाँ अपनी सोच सुधारे बिना ये संभव नहीं है
पहले अपनी सोच को क्यूँ ना सुधार लिया जाए
ऐसा इसीलिए है क्यूंकि आपकी सोच दूषित है
उसको सुद्ध किया जाए
उसे भी स्वतंत्र किया जाए जिसने आपको
स्वतंत्र जीवन जीने के लिए धरा पे अवतारा है
जिससे आपका आस्तित्व है
जिसने नौ महीने कोख में रख पीड़ा झेली है
जिसने प्रसव पीड़ा सही है
वह नारी दुर्बल कैसे हो गयी
क्यूँ ना उसे भी समाज में ऐसा दर्जा दिया जाए जिसकी वो हकदार है
उसे भी उन्मुक्त गगन में उड़ने दिया जाए
ताकि आने वाली पीढ़ी की सोच पर प्रहार किया जा सके
कब तक नारी ऐसे जीती रहेगी
क्यूँ ना मन की सुद्धि की जाए
उसे कुंद बुद्धि कहने वालो
उसे क्यूँ ना सुबुद्धि किया जाए
की वो भी कहीं वीराने में भी स्वक्छंद बिना डर के घूम सके
क्यूँ उसे घूर घूर के डराते सहमाते हो
अपने अन्दर झाँक के अपने शैतान को क्यूँ नहीं मार भगाते हो
पहले अपने शैतान को निकालिए
और देखिये ये वही नारी है जो घर में आपकी माँ भी है
बहन भी और कई ऐसे रिश्ते हैं जिन्हें केवल नारी ही पूर्ण कर सकती है

आओ एक नयी सोच को नयी दिशा दें
नारी का सम्मान देश का सम्मान है

जय हो नारी शक्ति "माँ, बहन, पत्नी, और ऐसे अनेकों रिश्ते जिनमे केवल तुम ही हो " के रूप में आपको बारम्बार प्रणाम है

तेरी ना जुस्तजू करता तो बता क्या करता ?

तेरी ना जुस्तजू करता तो बता क्या करता ?
आग सीने में ना भरता तो बता क्या करता ?

अब दौलत-ए-वक़्त ही रहा तुझे देने के लिए
ना करता वक़्त का खरचा तो बता क्या करता ?
हम तो बस हैं तेरी चाहत के तलबगार सनम
ना करता तेरी भी चरचा तो बता क्या करता ?

मेरी एक आरजू रही तुझे पाने की मगर
बिछड़ के तुझसे ना मरता तो बता क्या करता ?.................SPS ......................

Monday, 16 January 2012

"काश"

"काश"

शीतल पुरबाई चल रही है

आसमान पे दिवाकर
चन्द्रमा सा प्रतीत होता
कम्कम्पाते बदन पे
स्वेटर , कोट सूट
आलाव जला जला के
घर की छतों पे खड़े
गुनगुनी धूप का लुत्फ़ लेते लोग
सर्दी में गुनगुनी सी तपिश पैदा करती
चाय की चुश्कियों
हांथों को रगड़ते
सिस्कारियां भरते
अपने प्रियतम की बाहों में
अपने मन को उत्साहित करते
मन में नव वर्ष
में नवीन कार्यों की सोच लिए
हर मन
पर कोई ऐसा भी है
जो इस सोच से परे कुछ और ही सोच रहा है
बसंत का सुहाना मौसम है
हर ओर त्योहारों की छटा है
सुन्दर फूल खिल रहे हैं
चहुँ ओर हरीतिमा ही छाई हुई है
ऐसा लगता है की ये
बसंत कभी ना जाए
प्रकृति की ये अनुपम छवि
ह्रदय में कहीं समा के रह जाए
हर मन यही सोच रहा है
कोई प्रियतमा के साथ
उल्लास मना रहा है
किसी को प्रियतमा की याद
सता रही  है
किसी को मौसम ने
अपने अनुपम अनुभव से
लालायित कर रखा है
सब मोहित है सृजनकर्ता के
इस अनुपम दृश्य से
हर मन ये सोच रहा है
के काश ये बसंत
पतझड़ का आगाज ना हो
बसंत आया है तो पतझड़ भी आएगा
पर कोई ऐसा भी है
जो इस सोच से परे कुछ और ही सोच रहा है
पृकृति के चक्र भला कौन तोड़ पाया है
पतझड़ आ ही गया
सब ओर सब्ज पत्ते
जमी पे कालीन की तरह
सजा गया
किन्तु सजर सारे नीरस से 
निराशा  का प्रतिबिम्ब से बने
मूक खड़े से
और हम
पृकृति की इस अनूठी सौगात पर
अपने आप को स्तब्ध खड़े
बस ये सोचते हैं
ये खिजाएँ कब जायेंगी
कब बहारें लौट के आयेंगी
पर कोई ऐसा भी है
जो इस सोच से परे कुछ और ही सोच रहा है
लो मौसम आ गया
गर्मी का
भीषण गर्मी
चिलचिलाती धूप
चमड़ी जलाती धूप
पसीने से तर करती धूप
हर ओर सूखा ही सूखा
नीरसता का पर्याय सा लगता
सब सोच रहे हैं
काश के कूलर होता
काश ऐ सी होता
हम कमरों पे बैठे
रहें बस
पर कोई ऐसा भी है
जो इस सोच से परे कुछ और ही सोच रहा है
लो सब कुछ सहते गर्मी भी निकल ही गयी
और टिप टिप बूंदों के साथ आ गया
एक और स्वप्न में विचरण करने का मौसम
बरसात का मौसम
हर व्यक्ति बारिश में सराबोर है
ताल तलैया पानी से लबालब भरे हुए हैं
हर ओर फिर से हरियाली
कमल कुमुदनी तालाब की सोभा बढ़ाते
चंचल प्रेमी जन
बारिश में अपनी प्रेयशी में डूबे हुए
मौसम का आनंद लेते
किश्तियाँ चलाते
किलकारियां मारते छोटे छोटे
प्यारे से बच्चे
कोई छाते की बारे में सोचते
कोई भजिये
चाय समोसे
कोई पकोड़े
कोई मेढकों की टर टर से मंत्र मुग्ध होता
कोई बादलों की बज रही ढोलक से
कोई बिजली के गिरने से
आश्चर्यचकित होता
कोई घर पे आराम के लुत्फ़ लेता
लेकिन कोई ऐसा भी है
जो ये सोच रहा है
काश मेरे घर पे छत होती
काश मेरे घर पे भी छत होती

संदीप पटेल